पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१३९

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१३६ पुरानी हिंदी (४०) जीविउ कासु न बल्लहउ धणु पुणु कासु न इट्छ । दोणिवि अवसर निवडियाइ तिरण सम गराइ विसि ।। जीवित, किसका (= किसको) न, वल्लभ { = प्यारा) है, धन, पूनि, किसका ( = किसे), व, इष्ट (है), दोनो ही, अवसर निबटने पर, तृणसम, गिन, विशिष्ट (जन)। निवडिभाइ-निबटने पर, आ पडने पर, इसे भावलक्षण सप्तमी मानकर यह अर्थ किया है, अवसर-निवडियाइ को एक पद और 'दोण्णि' का विशेषण मानो तो अवसर पर निवटे (काम मे आए, खर्च हुए ) इन दोनो ही को विशिष्ट मनुष्य तृणसम गिनता है-यह अर्थ होगा। (४१) प्रगणि चिट्ठदि नाहु ध्रु, न रणि करदि न भ्रन्ति । आँगन मे बैठता है, नाथ, जो, सों, रन में, करता है, न भ्राति, या वह रन (मे वीरता) करता है इसमे भ्राति नही । वह मत समझो कि यह प्रांगन मे बैठा लडता नहीं है । भोलो । भोलो दीसतो सदा गरीबी सूत । काकी कुजर काटतां जाणवियो जेठूत in (भोला भोला दिखाई देता था सदा गरीबी से सीधा सादा, कितु चची | लडाई मे हाथियो को काटते समय मेरा जेठ का बेटा जान पंडा कि उसमे ये जौहर है)। जो सा के लिये ध्रु न आते हैं ( हेमचद्र ८।४।३६९) न मे तो त(तू) है ही, र लगा है जैसे भ्रनि मे ( दूसरा रूप भति मिलेगा, दे० ४५) । र लगने के लिये प्रागे देखो व्यास का वास (६१) ! ( ४२ ) त वोल्लिाइ जु निबहइ 1. सो बोलिए जो निवहै । ( सो वोला जाय, जो निबाहा जाय) । । एक मारवाडी दोहे के अनुसार 11 एक कुमारी एहो नरु यहु मणोरहाणु एहऊ वढ चिन्तम्ताह पच्छह होइ विहाणु ॥ ।