पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१३४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पुरानी हिंदी १३३ ज्यो, ज्यो, बाँके, लोयनो से, निरु (? कटाक्ष), सायली, सीखती है, श्यो, त्यौ, मन्मय (कामदेव), निज (क) शरो को, खरे पत्थर पर, तीखा करता है । मैने बकिम को 'लोग्रण' का विशेपण माना है जिससे निरु' का अर्थ सष्ट नही जान पडना, दोषकवृत्ति ने निरु का अर्थ "निश्चय करके 'लोचनो से निश्चय वौकायन सीखती है 'अर्थ किया है। वम्मह: मन्मय । निग्रय-निजक । खर-तीखा । तिक्खेइ-तीखा से नाम धातु । ( २३ ) सगरसएहि जु वपिणइ देवल अम्हारा कन्तु । अइमत्तह चत्तड कुसह गयकुम्भइ दारन्तु ॥ सौ सौ लडाइयो मे, जो वरना (वर्णन किया जाता है, देख, हमारा (वह) कत, अतिमत्त, अकुश छोडनेवाले, गजो के, कुभो को ( वि+) दारता हुप्रा । सगरसब-सगरशत । चतंकुस-त्यक्तांकुंश । (२४) तरुणही तरुरिगहो मुरिणउ मह करहु म अप्पहो घाउ । तरुणो। तरुणियो ।, जानकर, मुझे (= मेरी वात "समझकर या मुझे यहाँ उपस्थित जानकर) करो; - मत,- प्रपना, घात । मुरिणउ मइ-मैंने समझा, या मैंने समझाया, भी, हो सकता है।:- (२५) भाईरहि जिवे भारइ मग्गैहि तिहिवि पवट्टइ । भागीरथी, जिमि, भारती, मार्गों से, तीन से ही प्रवर्तती ( चलती) है। जैसे गंगा त्रिपथगा स्वर्ग, मर्त्य, पाताल तीनो में चलती है वैसी भारती (सरस्वती) के मार्ग भी तीन है-वैदर्भी, गौड़ो पाचाली-तीन रीतियां ।। (२६) सुदर-सव्वैङ्गाउ विलासिरणीयो पेच्छन्ताम् । सुंदर सर्वाङ्ग (वाली) विलासिनियो को देखते हुए (पुरुषो) का-- (२७) निम मुह-करहिवि मुद्ध' कर अन्धारइ पेडिपेक्खाइ । ससि-मण्डल-चन्दिमए' पुणु 'काई न दूरे देखइ ॥ - 1