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११८ पुरानी हिंदी जगह 'आह' का होना, हन का 'वध्' हो जाना और अस्' का 'भू' हो जाना कहा है उसका यही ऐतिहासिक अर्थ है कि 'आह' 'अस्' और 'वध्' धातुओ के पहले पूरे रूप होते होगे, उस समय ये धातु अधूरे रह गए थे, पाणिनि ने उन्हें उसी अर्थ के और धातुओ के रूपो मे मिला दिया । पाणिनि के वैदिक रूपो को विवेचन से यह पता लग जाता है कि किस समय तक कैसे प्रयोग होते थे, कब से क्या बदल हुई। प्राकृत व्याकरणो ने बद्धमूल सस्कृत को प्रकृति मानकर वे बद्धमूल प्राकृत का व्याकरण लिखा है। सस्कृत से क्या क्या परिवर्तन होते है उन्ही को गिना है, प्राकृत को भापा मानकर नही चले । चल भी नही सकते थे, उनकी लक्ष्य प्राकृत भी किताची अर्थात् जड प्राकृत थी । हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण के लगभग दो पाद इसी मे चले गए है कि किस सस्कृत शब्द मे किस अक्षर की जगह क्या हो जाता । यदि पाणिनि की तरह स्थान, प्रयत्न, अतरतम आदि का विचार प्राकृतवाले करते तो सक्षेप भी होता और वैज्ञानिक नियम भी बन जाते । विना उसके प्राकृत व्याकरण अनियम परिवर्तनो की परिसख्या मान हो गया है । हेमचद्र कहता है कि डसि ( पचमी एकवचन, अपादान ) की जगह प्राकृत मे त्तो, दो, दु, हि, हिन्तो आते है, या कोरी सज्ञा बिना प्रत्यय के पाती है । बहुवचन मे इनके सिवाय सुन्तो भी आता है' । आगे चलकर उसने मध्यम पुरुप उत्तमपुरुप के कई रूप गिनाए है । यह जानना बहुत रोचक और ज्ञानदायक होता कि क्या ये सभी रूप श्रीकृत मे एक समय चल गए या समय समय पर पाए ? इससे प्राकृत की तहें मालूम हो जाती। सवध के अर्थ मे केरल (स० केरक, हिं• केरा) प्रत्यय आता है, हेमचन्द्र ने उसे अपभ्रश में आदेश गिना है, प्राकृत में नही, किंतु वह मृच्छकटिक और शाकुतल की प्राकृत में कई जगह मिलता है। प्राकृतोमे जो सस्कृतसमया तत्सम शब्द है वेसस्कृतसे जाने जाते हैजोसस्कृत- भव या तद्भव है उन्हें लोप, पागम, वर्णविकार आदि से इन वैयाकरणों ने सम- झाया है । रहे देशी । ये अव्युत्पन्न प्रातिपदिक है जिन्हें नई पुरानी प्राकृतोवाले व्यवहार करते आए हैं। इनका प्रकृतिप्रत्यय विचार कठिन है। सभव है कि १. ८३८,६ २. ८३18०-११७। ३. ८॥४॥४२२।