दूसरे दूसरे देशों और दूसरी दूसरी विलायतों को पढ़ाया वही आज असभ्यों में नहीं तो अर्द्ध-सभ्यों में गिना जा रहा है। महाकवि ने ठीक ही कहा है—
हतविधिलसितानां ही विचित्रो विपाकः
रणजीत पण्डित नाम के एक बारिस्टर ने "मार्डन-रिव्यू' में एक लेख, अभी कुछ ही महीने पूर्व लिखा है। उसमें उन्होंने उन बौद्ध-कालीन इमारतों-स्तूपों, चैत्यों और विहारों आदि—के ध्वंसावशेषों का वर्णन किया है जो अफ़ग़ानिस्तान के सदृश कट्टर मुसलमानी देश में भी अब तक पाये जाते हैं। उनका वर्णन पढ़कर कौन ऐसा स्वदेशप्रेमी भारतवासी होगा जो अपनी वर्तमान दयनीय दशा पर शोक से आकुल न हो उठे? बौद्ध-विद्वान् कुमारजीव भारतवासी ही थे। उन्होंने चीन जाकर वहाँ अनेक बौद्ध-ग्रन्थों का अनुवाद चीनी भाषा में किया था। परमार्थ पण्डित और बोधिधर्म्म आदि भारतवासियों ने, सैकड़ों हस्तलिखित बौद्ध-ग्रन्थों को अपने साथ ले जाकर, चीन में उनका प्रचार किया और अनन्त चीनियों को अपना समानधर्म्मा बनाया। इधर इन लोगों ने यह सब किया, उधर चीन देश के निवासी कितने ही बौद्ध-श्रमणों ने भारत की यात्रायें करके यहाँ के धर्म्मग्रन्थों और धर्म्म-भावों से अपने देशवासियों को बौद्ध बनाने में सहायता पहुँचाई।