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पुरातत्त्व का पूर्वेतिहास


के नवीनों ही को। वात पूर्ववत् ही अज्ञात है। इसी से ज्ञान-सम्पादन की जिज्ञासा ज्यों की त्यों बनी हुई है।

श्रम, खोज, विचार, विवेक आदि की सहायता से ज्ञान-वृद्धि ज़रूर हो रही है। एक समय वह था जब आकाश में सहसा मेघ मँडराते, आँधी आते और जङ्गलों में भाग लग जाते देख वैदिक ऋपियो को आश्चर्य होता था। वे भयभीत हो उठते थे और प्राकृतिक घटनाओं को देवी कोप समान कर उनसे परित्राण पाने के लिए इन्द्र, अग्नि, वायु आदि की शरण जाते थे। पर जैसे ही जैसे है विश्व-रहस्य का ज्ञान प्राप्त करते गये वैसे ही वैसे यथार्थ बात उनकी समझ में आती गई; उनका भय दूर होता गया; पानी परसने, हवा ज़ोर से चलने और आग लग जाने का यथार्थ कारण वे जानते गये।

इस तरह का ज्ञान-समूह अनन्त काल से सचित होता चला आ रहा है। उसके सजय का कोप ही इतिहास है। इन्द्रियों के द्वारा मनुष्य केपल अपने समय का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, भूत-भविष्यत् का नहीं। तो ज्ञान इन्द्रियातीत है उसकी प्राप्ति वह नहीं कर सक्ता । संसर्ग भौर अनुभव के भतीत ज्ञान की प्राप्ति उसे यदि हो सकती है तो इतिहास की की व्दौलत हो सकती है। समय समय का ज्ञान यदि इतिहास चढ होता चला गया