आठवें शतक के मध्य में हुई जान पड़ती है। चीन के
ऐतिहासिक ग्रन्थों में लिखा है कि सुमात्रा में, ईसा के
पाँचवें शतक में, हिन्दुओं का राज्य था। वहाँ के शैले-
न्द्रवंशी नरेशों ने अपने राज्य का विस्तार, धीरे धीरे,
बहुत दूर तक बढ़ा लिया था। बौद्ध हो जाने पर उन्होंने
मध्य-जावा के शैवों से उनका राज्य छीन कर वहाँ भी
अपना प्रभुत्व जमाया। दसवें शतक में इसी वंश के
एक राजा ने मदरास के पास नेगापट्टन में एक मन्दिर
बनवाया। इस काम में जो कुछ ख़र्च पड़ा वह उसी
राजा ने दिया; मन्दिर बनवाने की आज्ञा-मात्र दक्षिण के
तत्कालीन चोल-नरेश ने दो। सुमात्रा के इन नरेशों ने
भारत में और भी कई मठ तथा मन्दिर आदि बनवाये।
नालन्द में एक ताम्रपत्र मिला है। उसमें लिखा है कि
सुवर्णद्वीप ( सुमात्रा) के शैलेन्द्र-वंशी राजा बालपुत्रदेव
ने वहाँ पर एक मठ या विहार बनवाया। उसके ख़र्च के
लिए बङ्गाल के पाल-नरेश ने कुछ गाँव अलग कर दिये,
क्योंकि उसका झुकाव बौद्ध-धर्म की ओर था।
सुमात्रा के नरेशों की राजधानी श्रीविजय नामक
नगर था और वहाँ के पराक्रमी अधिपति महायान-सम्प्र-
दाय के बौद्ध थे। ये लोग पहले हीनयान-सम्प्रदाय के
थे; क्योंकि सातवें शतक में जब चीनी परिव्राजक इरिसंग
सुमात्रा में था तब उसने वहाँ हीनयान-सम्प्रदाय