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महात्मा अगस्त्य की महत्ता


तक में जाकर वहाँ पर भारतीय सभ्यता का प्रचार किया था। यह वही अगस्त्य ऋपि जान पड़ते हैं जिनके विषय में कहा जाता है कि उन्होने समुद्र को अपने चुल्लू में भर कर पी लिया था। इस अतिशयोक्ति या रूपक का मतलब शायद इतना ही है कि जिस समुद्र के पार जाना लोग पाप समझते या जिसके सन्तरण से लोग भयभीत होते थे उसी के वे इस तरह पार चले गये जिस तरह लोग चुल्लू भर पानी का पार कर जाते हैं। अगस्त्य को आप कल्पनाप्रसुत पुरुष न समझ लीजिएगा। उनका उल्लेख भाश्वलायन-गृखसूत्रों तक में है। पुराणो में तो उनकी न मालूम कितनी कथाय पाई जाती हैं। उनके चलाये हुए अगस्त्य-गोत्र में इस समय भी सहस्रशः मनप्य विद्यमान हैं। पूर्वीय द्वीपों में पाये गये एक शिलालेख तक में इस घात का निर्देश है।

अगस्त्य-ऋषि का निवासस्थान काशी था। वे महाशैव थे और काशी के एक शिव-मन्दिर, बहुत करके विश्वनाथ के मन्दिर, से सम्बन्ध रखते थे। वे बड़े विद्वान और बड़े तपस्वी थे। उनमें धर्म प्रचार-विषयक उत्साह अखण्ड था। शव-मत की अभिवृद्धि के लिए उन्होंने दक्षिणा-पथ के प्रान्तों में जाने का निश्चय किया। उस समय विन्ध्य-पर्वत के पार दक्षिणी प्रान्तों में जाना दुष्कर कार्य था। क्योंकि घोर अरण्यो को पार करके