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पुरातत्त्व-प्रसङ्ग


थी। ये दासियाँ या नर्तकियों सेकड़ो की संख्या में मन्दि- रस्थ देवताओं और उनके भक्तों को नाच-कूद कर रिझाया करती थी। जिस राजराज चोल (प्रथम) का उल्लेख ऊपर हुआ है उसने तो दक्षिणी भारत के भिन्न भिन्न मन्दिरो से ४०० नर्तकियाँ लाकर उन्हें तांजोर में बसा दिया था। वहाँ वे उस नगर के देवस्थानो को दिन-रात गुलज़ार रखती थी। इस बात का उल्लेख राजराज ने अपने एक शिलालेख में बड़े गर्व के साथ किया है। उसके पुत्र ने राजराजेश्वर नाटक खेलने के लिए विजयराजेन्द्र आचार्य को एक विशेष दान से सस्कृत किया था। तिरूविडाईमरु- दूर नामक स्थान में महालिगेश्वर नाम का एक मन्दिर है। वहाँ नाटक दिखाने के लिए एक नट को चोल-नरेश राजाधिराज (प्रथम) ने भी कुछ भूमि दान दी थी। चोल-नरेश कुलो तुङ्ग (तृतीय) ने एक नर्तकाचार्य को एक मन्दिर मे इसलिए रक्खा था कि वह मुँह से कुछ न कह कर केवल भावभङ्गी और नृत्य ही के द्वारा देवताओं और देवभक्तों तथा यात्रियो को अपना अभिनय दिखाया करे। ये बातें सुनी सुनाई नहीं; इन सबका उल्लेख शिलाओं पर उत्कीर्ण लेखो में पाया जाता है।

इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि किसी समय दक्षिणी भारत में नाट्यकला उन्नतावस्था में थी और जगह जगह नाट्यशालायें थीं। उनमें स्त्रियाँ और पुरुष