अन्य देशों को जाते थे। उसमें एक जगह (१-२५-७)
लिखा है कि समुद्र में जिस रास्ते जहाज, चलते हैं उसका
पूर्ण ज्ञान वरुण को है। दूसरी जगह (१-४८-६)
लिखा है कि लोभ के वशीभूत होकर व्यापारी लोग अपने
अपने जहाज, विदेशो को ले जाते हैं। तीसरी जगह
(१-५६-२) लिखा है कि व्यापारी बड़े ही कर्मशील
हैं; वे अपने लाभ के लिए सब जगह जाते हैं; समुद्र का
ऐसा कोई भी हिस्सा नहीं जहाँ वे न गये हों। चौथी
जगह (७-८८-३,४ ) लिखा है कि एक जहाज़ के
बनाने में बड़ी कारीगरी की गई थी। उस पर सवार होकर
(४) आ यद्रुहाव वरुणश्च नाव
प्रयत् समुद्रभीरयाव मध्यमम्।
अधियदपा स्रुभिश्चराव
प्रप्रेख ईखयावहै शुभे कम्॥
वशिष्टं ह वरुणो नाव्याद्या दृषि चकार स्वपामहोभिः।
स्तोतारं विप्रः सुदिनत्वे अन्हा षान्नुद्यावस्ततनन्यादुषासः
(७-८८-३,४)
(५) तग्रो ह भुज्युभिश्चिनोदमेघ
रयिं न कश्चिन्ममृवा अवाहाः।
तमूहथु नौभिरात्मन्वतीभिरन्तरिक्ष
प्रद्भिरपोदकाभिः॥ (१-११६-३