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पुरातत्व-प्रसङ्ग


शिलालेखो का प्रकाशन करके उन पर गवेषणापूर्ण लेख लिखे। साथ ही काठियावाड़ के निवासी पण्डित भगवान्- लाल इन्द्रजी और बङ्गाली विद्वान् डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र ने भी भारत के भूले हुए इतिहास के अनेक पृष्ठों पर प्रकाश डाला। यह सब काम इन लोगों ने निज के तौर पर, बिना किसी की आर्थिक सहायता के, किया।

१८४४ ईसवी में लन्दन की रायल एशियाटिक सोसायटी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से सिफारिश की कि इस इतने महत्व के काम के लिए उसे मदद देनी चाहिए। इस बात को उसने मान तो लिया, पर कुछ किया कराया नहीं।

उस समय जनरल कनिंहाम संयुक्तप्रान्त के चीफ इंजिनियर थे। पुरातत्व से उनको प्रेम पहले ही से था। उनसे कम्पनी की यह शिथिलता नहीं देखी गई। उन्होने एक योजना (स्कीम) तैयार करके गवर्नमेन्ट को भेजी और लिखा कि यदि यह काम गवर्नमेन्ट न करेगी तो फ्रेंच या जर्मन करेंगे। ऐसा होने से गवर्नमेन्ट की बड़ी बदनामी होगी। तब कहीं गवर्नर जनरल की सुषुप्ति भङ्ग हुई। उन्होने उस योजना को मंजूर किया और १८५२ ईसवी में पुरातत्त्व-विभाग(Archeological Survey) की स्थापना हुई। कनिहाम हो उसके डाइरेक्टर नियस हुए और इस काम के लिए उन्हें २५०) महीना अलौंस