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पुरातत्व-प्रसङ्ग


लेख थे। इसके बाद ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण और भी अनेक लेख मिलते गये।

इन लेखों को पढ़ लेने की सबसे अधिक जिज्ञासा जेम्स प्रिंसेप के हृदय में उत्पन्न हुई। उन्होंने अनेक लेखों की छापें मँगा कर सामने रक्खीं और लगे सवको परस्पर मिलाने। धीरे धीरे उन्हें कुछ वर्ण, रूप में एक ही से, मालम हुए। उनको वे अलग करते गये और अन्त में वे इस लिपि के स्वरों से परिचित होंगये। इससे उनका उत्साह बढ़ा। वे और वर्णों को भी पहचानने की चेष्टा करने लगे। गुप्त-लिपि के वर्णों से मिलान कर करके उन्होंने कितने ही व्यञ्जनों से भी परिचय प्राप्त कर लिया। इस काम में पादरी जेम्स स्टीवन्स आदि ने भी उनकी कुछ सहायता की। उन्होंने भी कुछ वर्ण पहचाने। इस प्रकार अनवरत उद्योग करते करते प्रिंसेप को इस लिपि का पूरा ज्ञान प्राप्त हो गया और उन्हें यह भी मालूम होगया कि इस लिपि में खुदे हुए अशोक के समय के इन लेखों की भाषा संस्कृत नहीं, प्राकृत है। इलाहाबाद, साँची, गिरनार, धौली आदि के अशोक स्तम्भों के लेखों को पढ़ लेने पर उन्होंने यह पूर्वोक्त निष्कर्ष निकाला जो सर्वथा सच था। इस वर्णमाला का ज्ञान हो जाने पर ब्राह्मी लिपि के लेख धड़ाधड़ पढ़े जाने लगे और सन् ईसवी के पहले के भी भारतीय-