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पुरातत्त्व-प्रसङ्ग


लिपि को हम देवनागरी कहते हैं वह विकसित लिपि है। वह तीन रूपान्तर प्राप्त करने के अनन्तर अपने वर्तमान रूप में आई है। उसका पहला रूप ब्राह्मी कहाता है। वह सन् ईसवी के ५०० वर्ष पहले से लेकर प्रायः ३५० ईसवी तक पाया जाता है। इसके अनन्तर उसे जो रूप मिला वह गुप्त-लिपि के नाम से अभिहित है। वह विशेष करके गुप्तवंशी नरेशों के शासन-समय मे -- अर्थात् सन् ईसवी के पांचवें शतक तक -- प्रचलित थी। उसके बाद का उसका विकसित रूप कुटिल-लिपि के नाम से उल्लि- खित है। उसका प्रचार ईसा के छठे से लेकर दसवें शतक तक माना जाता है। इससे पाठकों को ज्ञात हो जायगा कि हमारी वर्तमान देवनागरी लिपि के पुराने तीनों रूपों से परिचित हुए विना पुराने ग्रन्थों और उत्कीर्ण लेखों का पढ़ा जाना असम्भव है। ये रूप धीरे धीरे दुर्बोधता से सुबोधता की ओर पहुँचते गये हैं। जो लिपि जितनी ही अधिक पुरानी है, अपरिचित होने के कारण, वह उतनी ही दुर्बोध भी है।

पहले पहल चार्ल्सं विलकिन्स ने पुरानी लिपि में लिखे गये अर्थात् उत्कीर्ण लेख पढ़ने की चेष्टा की। दीनाजपुर जिले में एक स्तम्भ के ऊपर खुदे हुए, राजा नारायणपाल के समय के, एक लेख का उद्धार उन्होंने, १७८५ ईसवी में, किया। पण्डित राधाकान्त शर्मा ने