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पुरातत्व-प्रसङ्ग


सकालवा से है जिसके यहाँ पशु बहुत होते है। वहाँ पर अहीर, और कहीं कहीं बच्चे का पिता, बच्चे को सम्बोधन करके कहता है--"तुम्हारा छत या व्यवसान गोपालन हो। तुम खूब धनवान् हो , तुम बहुत से बाल-बच्चेवाले हो।' इस रस्म के अदा हो जाने पर, माता-पिता बच्चे को लेकर अपने घर लौट आते हैं। इसके कुछ ही समय पीछे बच्चे का नामकरण-संस्कार होता है। बच्चों के नाम उनकी भाषा मे, सदा उनको आकृति के अनुसार, रक्खे जाते हैं। यथा--गौरकाय, श्याममूर्ति, चिपिटाक्ष, दीर्घनास, लम्योष्ठ, लोलजिह्व, शूर्प-कर्ण, कम्बु- कण्ठ, उन्नतोदर आदि।

सन्ततिमती मातायें जब कहीं बाहर जाती हैं तब बच्चों को कपड़े से पीठ पर बाँध लेती हैं। कभी कभी ऐसा दृश्य देखने को मिलता है कि स्त्री अपने सिर पर तो जल से भरा हुआ एक बड़ा सा घड़ा रक्खे है और पीठ पर छः सात वर्ष का एक वच्चा भी लादे है। सकालवा जाति के बच्चे अपनी माता से पहले पहल जो शब्द सीखते हैं उनका अर्थ है कि अपने साथ हमें भी ले चलो।

इन लोगों की स्त्रियाँ, भारतीय स्त्रियों की तरह, कभी बेकार नहीं बठती। भोजन तैयार करने के बाद या तो वे धान कूटती हैं या, सूत कातती, कपड़ा बुनती,