हैं। पर यह बात गलत है। शेक्सपियर के ओथेलो
नामक नाटक में ओथेलो ने डेसडेमोना से इन लोगों का
जो वर्णन किया है उसमें लिखा है कि ये लोग मनुष्यान
हारी हैं। परन्तु यह भी मिथ्या है। बात यह है कि
अज्ञात या अल्पज्ञात जातियों के विषय में उस समय
लोगों को बहुत कम ज्ञान था। वे उनके विषय में इसी
तरह की विचित्र विचित्र बातों की कल्पना कर लिया
करते थे। इनमें तथ्य का अंश शायद ही कुछ हो। लोगों
ने तो यहाँ तक क्ल्पना कर ली थी कि अन्दमनी लोग
मनुष्यो को मार ही नहीं डालते; उन्हें भून कर खा भी
जाते हैं। एक बात अवश्य सच है। वह यह है कि ये
लोग आने कुटुम्बियो को खोपड़ियो तथा अन्य अङ्गों
को हद्धियों को आभूषण के तौर पर पहनते हैं। यह
प्रथा इनमें अब तक जारी है। अतएव, सम्भव है, इनकी
ऐसी ही ऐसी प्रथायें देखकर प्राचीन काल के सभ्य
मनुष्यों ने यह समझ लिया हो कि ये नर-मांसभोजी हैं।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, यह खर्वाकार
कृष्ण-वर्ण को मनुष्य-जाति बहुत पुरानी है। इसकी
उत्पत्ति हुए हज़ारों, नहीं लाखों वर्ष हो चुके होंगे। इनकी
भाषा का ठौर ठिकाना नहीं। किसी भी लिपि से ये लोग
परिचित नहीं। न ये खेती करना जानते हैं भौर न