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द्रविड़जातीय भारतवासियों की स० की प्रा०


गया; पर दक्षिणी भारत में वे अब तक बने हुए हैं और खूब फल-फूल रहे हैं।

द्रविड़ों की भाषा तामील के प्राचीन ग्रन्थों से भी कुछ ऐसी सामग्रो ढूँढ निकाली गई है जो इस बात को पुष्ट करती है कि द्रविड़ों के पूर्वजों की सभ्यता निराले ही प्रकार की थी। आर्य्यों के आगमन के पहले ही वे सभ्य हो चुके थे। आर्य्यों की सभ्यता की छाप उनकी सभ्यता पर बहुत पीछे पड़ी है। आर्य्यों ने खुद भी उन से कुछ सीखा है। और नहीं तो उनकी भाषा के कुछ शब्द उन्होंने जरूर ही लेकर अपनी भाषा की श्रीवृद्धि की है।

योरप और भारत के पुरातत्वज्ञों की कल्पनाओ के आधार पर सुनीतिवुमार बाबू ने जो कुछ लिखा है उसका आशय हमने थोड़े में सुना दिया। अब आर्य्यों के वंशज चाहे इसे तिल का ताड़ समझे चाहे शश-अङ्गों; की अस्तित्व-सिद्धि के लिए पराक्रम-बाहु का प्रचण्ड प्रयत्न। परन्तु अभी क्या, अभी तो इस आविष्कार काण्ड का पहला ही अध्याय सुनने को मिला है। आविष्कृत ठप्पों पर खुदी हुई लिपि में जो लेख हैं वे यदि कभी पढ़ लिये गये तो न मालूम और कितनी अभुतपूर्व बातें सुनने को मिलें।

इन प्रनतत्वज्ञों में हाल नाम के एक विद्वान उलटी