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पुरातत्त्व-प्रसङ्ग


ठप्पों पर भी किसी अज्ञात भाषा में कुछ खुदा हुआ देखा गया। ठप्पों को लिपि विचित्र मालूम हुई। प्राचीन लिपि ब्राह्मी और खरोष्ठी से वह बिलकुल ही भिन्न है। उनमें और ठप्पों की लिपि में कुछ भी सादृश्य नही। ठप्पों को लिपि में कुछ वर्ण तो चित्र-लिपि के जैसे मालूम होते हैं, पर कुछ और ही तरह के है।

इन आविष्कारों को देख कर यह अनुमान किया गया कि पञ्जाब और सिन्ध में किसी दूरवती युग या काल मे कोई ऐसी मनुष्य-जाति ज़रूर रहती थी जिसकी लिपि विचित्र थी। उस जाति के मनुष्य अपने मुद्रों को, एक आसन-विशेष में स्थिर करके, मिट्टी के सन्दूकों के भीतर रख कर, ज़मीन में गाड़ देते थे और सन्दूक के भीतर खाने-पीने का सामान भी रख देते थे। ये रीतियाँ प्राचीन आर्यों में प्रचलित न थीं। अतएव अपने मुद्दे बाड़नेवाले कोई और ही लोग सिन्ध और पञ्जाब में रहते रहे होंगे और वे आर्यों के आगमन के पहले ही वहाँ बस गये होंगे।

ये अनुमान अथवा कल्पनायें लेखबद्ध की गई। पुरातत्त्व-विभाग के प्रधान अफसर मार्शल साहब ने उन्हें विलायत के अखबारो और प्रनतत्त्व-विषयक सामयिक पुस्तकों में प्रकाशित कराया। उन्हे पढ़कर फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी और नारवे आदि देशो के प्राचीन-तत्वज्ञों में खल-