सुमेर और इराक अरब के भी बहुत पुराने निवासी इन्हीं
भारतीय द्राविड़ों के सजातीय थे । किसी समय ये लोग
वहाँ, यहाँ और बिलोचिस्तान आदि में, सर्वत्र ही, फैले
हुए थे । वे प्राचीन आर्यों से भी, बहुत विषयों में;
अधिक सभ्य थे। सो इन नये आविष्कारों को देख कर
आर्यों के वंशजों को गर्व न करना चाहिए । गर्व यदि
किसी को करना चाहिए तो कोलो को, भीलों को,
सन्थालों को, भरो को । उनको न सही तो दक्षिण प्रान्त-
वासी द्राविड़ों को उन लोगों को जिनकी भाषा तामील,
तैलंगी, कनारी या मलयालम आदि है !
अच्छा तो अब कृपा करके सुनीतिकुमार बाबू के उस कोटिक्रम का कुछ आभास लीजिए जिसके आधार पर उन्होने अपने और अपने पूर्ववर्ती लेखकों के पूर्वनिर्दिष्ट सिद्धान्तो, अनुमानों या कल्पनाओं के समर्थन की चेष्टा की है-
मध्य एशिया से इधर-उधर बिखरने और भारत में आर्यों के आने के विषय में जो कोटि-कल्पनायें अब तक की गई थी उनका मेल उन बातो से अच्छी तरह नहीं खाता रहा जिनका उल्लेख ऋग्वेद में है । द्राविड़ भाषाओं की बनावट और संस्कृत से उसका भिन्नत्व देख कर कुछ लोगों को यह सन्देह पहले ही हो चला था कि जिनकी ये भाषायें हैं वे शायद ही प्राचीन आर्यों के