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पुरातत्व-प्रसङ्ग


मोक्षमहापरिपद् नाम की एक सभा का अधिवेशन किया जाता था। उस समय सम्राट दीन-दुखियों को दान देता और हर तरह से उनकी सहायता करता था।

कपिशा के विस्तृत राज्य में उस समय कोई एक सौ विहार थे। उनमें ६ हज़ार बौद्ध श्रमण रहते थे। स्तूपों और संघारामों की इमारतें बहुत विशाल थी। वे इतनी ऊँची थीं कि दूर से वे देख पड़ती थी। उनके सिवा, हिन्दुओं के भी सैकड़ों मठ और मन्दिर थे।

बौद्ध काल में काबुल में भी बौद्धों के कितने ही स्तूप भौर विहार थे। पर वे सब अब नामनिःशेष हो गये हैं। उनकी जगह पर अब केवल खँडहरों के कुछ चिन्ह और धुम्स-मात्र रह गये हैं। हाँ, एक बहुत ऊँचा स्तम्भ अब तक खड़ा हुआ है। न वह भूकम्पों ही से भूमिसात् हुआ, न उस पर भवनभञ्जकों और मूर्तिसंहारको ही की कुदालों का कुछ बस चल सका।

हु-एन-संग जिस समय बामियान में आया था उस समय वहाँ बौद्ध धर्म्म ऊर्ज्जितावस्था में था। वहाँ के निवासी बड़े ही धर्म्मानिष्ठ थे। वे विशेष करके लोकोत्तरवादी सम्प्रदाय के थे। दस विहार और कोई एक हजार भ्रमण, उस समय, वहाँ थे। बुद्ध की एक प्रस्तरमूर्ति, १५० फुट ऊँची और उससे कुछ दूरी पर धातु की दूसरी मूर्ति १०० फुट ऊँची, खड़ी आसमान से बातें करती