कई अंगरेज़, जर्मन और फरासीसी विद्वान् अनेक अज्ञात और विस्मृत बातों का पता लगा चुके हैं। उनका यह काम १८९७ ईसवी से शुरू हुआ था और अब तक जारी है। पर १९२२ ईसवी तक, किसी भी स्वदेशी पुरातत्त्वज्ञ ने अफ़ग़ानिस्तान में प्राचीन चिन्हों का पता लगाने की चेष्टा नहीं की थी। फरासीसी पण्डित फूशर ( Foucher ) ने, उस वर्ष, अफ़ग़ानिस्तान के अमीर की आज्ञा से, पहले-पहल खोज का काम शुरू किया। खोज से उन्हें अनेक महत्त्वपूर्ण स्तूपों, मीनारों, मूर्तियों आदि का पता लगा। उनमें से कितनी ही वस्तुओं को उठा कर वे पेरिस ले गये। वहाँ पर वे एक अजायबघर में रक्खी गई हैं। उन्हें देख कर पुरातत्त्व के पण्डितों और भारत की प्राचीन कारीगरी के ज्ञाताओं को अपार आनन्द और आनन्द के साथ आश्चर्य तथा परिताप भी होता है। जो भारत इस समय अपने प्राचीन गौरव को भूल सा गया है उसी ने, किसी समय, दूर दूर तक के देशों में अपनी सभ्यता और अपनी कला-कुशलता का प्रकाश फैला कर अपनी सत्ता चलाई थी। यह जान कर किस विवेकशील भारतवासी को आँखों से आँसू न
निकल पड़ेगे?
जलालाबाद, हिद्दा और काबुल में जो बौद्धकालीन चिन्ह—मूर्तियाँ और मूर्ति-खण्ड आदि—मिले हैं उनमें