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अफगानिस्तान में बौद्धकालीन चिन्ह

ही की बस्ती अधिक थी। ये लोग अलप्तगीं और सुबुक्तगीं इत्यादि जनरलों के आक्रमणों से अपनी रक्षा यथाशक्ति करते रहे। पर अनेक कारणों से इन्हें परास्त होना पड़ा और ९९० ईसवी में लमग़ान का क़िला भारतीयों के हाथ से निकल गया। यह जगह काबुल से ७० मील है। अन्त में महमूद ग़ज़नवी ने भारतीय सत्ता का समूल ही उन्मूलन कर डाला। केवल क़ाफ़िरिस्तान उसके आधिपत्य से बच गया। वहाँ, उस प्रान्त में, अब तक भी बहुत कम मुसलमान पाये जाते हैं। तदितर धर्म्म वाले ही वहाँ अधिक हैं।

इस संक्षिप्त विवरण से ज्ञात हो जायगा कि जिस अफ़गानिस्तान और मध्य-एशिया में इस समय इस्लामी डङ्का बज रहा है वहाँ मुसलमानों की अधिकार-प्राप्ति के पहले हजारों वर्ष तक भारतीय सभ्यता और सत्ता का दौर-दौरा था। अतएव यदि वहाँ बौद्धकालीन ऐतिहासिक चिन्ह अब भी, टूटी फूटी दशा में, बहुत से पाये जायें तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं।

मुसलमानों ने तो हिन्दुओं की पुरानी इमारतों और पुराने चिन्हों की रक्षा दूर, उनको विनाश करना ही, बहुधा अपना कर्तव्य समक्षा। अतएव उनके जो 'ध्वंसावशेष' यत्र तत्र बच गये हैं उसे दैवयोग ही समझना चाहिए। मध्य-एशिया के प्राचीन चिन्हों की खोज करके