विधवाश्रम दो आदमी चुपचाप बातें करते सड़क से जा रहे थे। सन्ध्या का समय था । एक ने कहा---'बम ठहर जाआ। यही वह घर है। वह खिड़की देखते हो, वहीं है वह ।। "वह तो बन्द है।" "अवश्य वह खोलेगी । मैं तीन दिन से देखता हूँ। वह बार- बार इशारा करती है। “यार, क्यों वेपर की उड़ाते हो। ऐसे खूबसूरत भी नहीं हो. जो कोई औरत तुम पर मरे-फिर वह महलों में रहने वाली ।" इतने में खिड़की खुली और एक औरत उसमें दीख पड़ी। उस आदमी ने मित्र की बात खतम होते ही कहा-'देखो, वह देखो। दोनों ने देखा-वह कुछ सङ्घन कर रही थी। अब कुछ देर उधर देख, एक बगल खड़े होकर उनमें से एक ने संकेत किया। संकेत का उत्तर संकेत में दिया गया। अब दोनों को सन्देह नहीं रहा। परन्तु एक ने कहा-"भाई देखो, यह मामला कुछ और ही ढंग का मालूम देता है, प्रेम का नहीं। वरना वह औरत दो आदमियों को संकेत न करती " यह कह- कर उसने फिर उस स्त्री को सङ्केत किया। स्त्री का सङ्केत पाकर उसने कहा-"ठहरो, सब ठीक हुत्रा जाता है। अभी हमें एक धुलिस का कॉन्स्टेबिल बुलाना पड़ेगा।" वह लपक कर एक कॉन्स्टेबिल को बुला लाया। कॉन्स्टेबिल ने खिड़की की तरक, देखा-वह स्त्री वहीं खड़ी थी और संकेत कर रही थी। उसने १०७
पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/१२३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।