पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/१०५

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विधवाश्रम "खैर, मैं दो जोड़ा साड़ी तुन्हें आज ही और भिजवा देता हूँ। तुम केसी साड़ी पसन्द करतो हो, रेशमो कोर को न ?

  • जी जैसी मिल जाय ।

"जैसी चाहोगी वैसी ही मिल जायगी! खैर, नुम्हें कुछ जेव-खर्च भी चाहिए ?" "जी नहीं, मेरे गाल कुछ रुपए हैं।" "अच्छी बात है। हाँ, एक बात---यहाँ जेवर पहनने का नियम नहीं है । तुम्हारे गहने सब कोष में जमा झारी " "कोप क्या है? "आश्रम का कापल्यानी खजाना। जब तुम्हारा विवाह होगा, तब वापस दे दिर जायेंगे।" "मगर में विवाह तो कराने को इच्छा हो नहीं करती।" "यह कैसी बात है ? फिर यहाँ आई क्यों हो ?" "मैं तो विद्या पढ़ कर केवल अपना धर्म सुधारना चाहती हूँ।" 'परंतु जवान लड़कियों का धर्म सिर्फ विद्या से ही नहीं बरता।' "तव" "उन्हें व्याह करना चाहिए !" "व्याह तो एक बार हो चुका, वही तकदीर में होता तो तकदीर क्यों फूटती ?" "यह संसार के कारखाने हैं, सब दिन एक से नहीं रहते। कहा है-"बीती ताहि विसार दे, आगे की सुधि लेहु ।" "मैं तो विद्या पढ़ने ही आई हूँ।" "विवाह कराके विद्या भी पढ़ना।" "विवाह कराना मैं नहीं चाहती।" SE