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क्यों न सन्यास ले लूँ? आज कल यही एक विचार मन में आता रहता है। यहाँ पास में ही एक मठ है। वहाँ जाने लगा हूँ। सोचा, जीने के लिए कोई अच्छा कारण मिल जाएगा। पिछले जनम के सारे पाप धुल जाएँगे। हर रोज तीन घंटे वहाँ जाकर सेवा करता हूँ। झाडू-पोछा लगाना, सबको तीर्थ देना और बाकी ऐसा-वैसा जो कुछ काम बताया जाएगा, कर लेता हूँ। संन्यास के बारें में घरवालों से अभी कुछ कहा नहीं है, लेकिन कम-से-कम मैं पूजा-पाठ, आश्रम मे लगा हूँ, तो मुझे सद्बुद्धि मिल जाएगी, इस विचार से घरवाले भी कुछ कहते नहीं है। बचपन में मनपर हुए पाप-पुण्य के संस्कार इतनी आसानी से थोड़े ही निकल जाते हैं। तीर्थ प्रसाद से किसी को मुक्ति नहीं मिलती, यह बात जल्द ही मेरी समझ में आ गई। यहाँ आश्रम में सब काम मुझसे करवा लेते है और खुद हमेशा आगे- लोगों से पाँव छुआ लेने के लिए। यहाँ के शिष्यगणों में एक दूसरे के लिए दाह की भावना देखता हूँ। जितना क्रोध, दाह, अहंकार यहाँ महसूस हुआ, उतना बाहर दुनियाभर में भी देखने को नहीं मिलेगा। आश्रम में एक आदमी है, परमानंदा होगा करीब साठ साल का। उसने पच्चीस की उमर में संन्यास ले लिया है। है बहुत हट्टाकट्टा। उसकी नजर लगातार मेरी तरफ लगी रहती है। कभी-कभी अनायास उसका हाथ मेरे चूतडपर आ जाता है। पहले मुझे लगता था, यह बात अनजाने मे हो रही है। लेकिन अब मैं जान गया हूँ कि उसे मुझमें 'इंटरेस्ट' है। उसका मुझे छुना तक मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। मैं उससे दूर दूर ही रहता हूँ। आश्रम में काम बढ़ गया है। सारे काम ढोने के लिए मैं अकेला हूँ क्या? मन कर रहा है आश्रम में जाना छोड़ दूँ। कल से आश्रम नहीं जाऊँगा। संन्यास का विचार भी कॅन्सला वैसे पैंतीस साल तक संन्यासी बनकर रहने के बाद भी परमानंद को क्या मिला? पैंतीस साल लगातार शरीर भुखा रखकर भी उसका पुरुषों का आकर्षण कम नहीं हो सका, तो मेरा और क्या होगा? एक तरफ शरीर की भूख और दूसरी तरफ संन्यास का ढोंग इस प्रकार का दोहरा मापदंड रखने से बेहतर है, आश्रमसे दूर रहके कुछ न कुछ करू। कम- २६