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मन्त्र

भगत ने कहा--नहीं जी, जाऊँगा कहाँ ! देखता था अभी कितनी रात है, भला कै बजे होंगे ?

चौकीदार बोला--एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था ; तो डाक्टर चड्ढा बाबू के बँगले पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लिया है। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओ, तो साइत बच जाय। सुना दस हजार तक देने को तैयार हैं।

भगत--मैं तो न जाऊँ, चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हजार या दस लाख लेकर करना क्या है ? कल मर जाऊँगा, फिर कौन भोगनेवाला बैठा हुआ है !

चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ है, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार था, दम्भ था, हिंसा थी ; पर कर्म मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलाई, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ काँपते हैं, उठते ही नहीं !

भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था।

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