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मन्त्र

'अरे दोपहर ही होता, तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत आज भी आँखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नजर देखा तक नहीं ! क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा ? खूब जानता था। चड्ढा भगवान् नहीं थे कि उसके एक निगाह देख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। जरा तसल्ली हो जाती ; बस, इसीलिये उनके पास दौड़ा गया था। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा, क्यों साहब, कहिए क्या रंग है ? दुनिया बुरा कहेगी, कहे ; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐब होते ही हैं। बड़ों में कोई ऐब नहीं होता। देवता होते हैं।'

भगत के लिये जीवन में यह पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पाकर वह बैठा रह गया हो। ८० वर्ष के जीवन में ऐसा कभी न हुआ कि साँप की खबर पाकर वह दौड़ा न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों के चढ़े हुए नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की। वह तुरन्त घर से निकल पड़ता था, निस्वार्थ, निष्काम। लेने-देने का विचार कभी दिल में आया ही नहीं। यह ऐसा काम ही न था।

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