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मन्त्र


डाक्टर चड्ढा बोले--मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ गया। नश्तर लगा देता तो यह नौबतं ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा साँप न पालो ; मगर कौन सुनता था ! बुलाइये, किसी झाड़-फूँक करनेवाले ही को बुलाइये। मेरा सब कुछ ले-ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लंगोटी बाँधकर घर से निकल जाऊँगा ; मगर मेरा कैलास, मेरा प्यारा कैलास‌ उठ बैठे। ईश्वर के लिये किसी को बुलाइये।

एक महाशय का किसी झाड़नेवाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये ; मगर कैलास की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला--अब क्या हो सकता है सरकार, जो कुछ होना था, हो चुका !

अरे मूर्ख, यह क्यों नहीं कहता कि जो कुछ न होना था हो चुका। जो कुछ होना था वह कहाँ हुआ ? माँ-बाप ने बेटे का सेहरा कहाँ देखा ! मृणालिनी का कामना-तरु क्या पल्लव और पुष्प से रंजित हो उठा ? मन के वह स्वर्ण-स्वप्न, जिनसे जीवन आनन्द का स्रोत बना हुआ था, क्या वह पूरे हो गये ? जीवन के नृत्यमय, तारिका-मण्डित सागर में आमोद की बहार लूटते हुए क्या उनकी नौका जलमग्न नहीं हो गई ? जो न होना था वह हो गया !

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