मृणालिनी ने देखा कि ये शोहदे उसे चंग पर चढ़ा रहे हैं, तो बोली--आप लोग मेरी वकालत न करें, मैं खुद अपनी वकालत कर लूंँगी। मैं इस वक्त साँपों का तमाशा नहीं देखना चाहती। चलो छुट्टी हुई।
इस पर मित्रों ने ठट्ठा लगाया। एक साहब बोले--देखना तो आप सब कुछ चाहें, पर कोई दिखाये भी तो ?
कैलास को मृणालिनी की झेंपी हुई सूरत देखकर मालूम हुआ कि इस वक्त उसका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा है। ज्यों ही प्रीति-भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह ! क्या कमाल था ! ऐसा जान पड़ता था कि ये कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया। मृणालिनी बार-बार मना करती कि इन्हें गरदन में न डालो, दूर ही से दिखा दो। बस ज़रा नचा दो। कैलास की गरदन में साँपों को लिपटते देखकर
उसकी जान निकली जाती थी। पछता रही थी कि मैंने व्यर्थ ही इनसे साँप दिखाने को कहा ; मगर कैलास एक न