उधर ही रहोगे। सभी उसे छेड़ते थे, चुहलें करते थे। बेचारे को जरा दम मारने का अवकाश न मिलता था।
सहसा एक रमणी ने उसके पास आकर कहा--क्यों कैलास, तुम्हारे साँप कहाँ हैं ? ज़रा मुझे दिखा दो।
कैलास ने उससे हाथ हिलाकर कहा--मृणालिनी, इस वक्त क्षमा करो, कल दिखा दूँगा।
मृणालिनी ने आग्रह किया--जी नहीं, तुम्हें दिखाना पड़ेगा, मैं आज नहीं मानने की, तुम रोज़ कल-कल करते रहते हो।
मृणालिनी और कैलास दोनों सहपाठी थे और एक दूसरे के प्रेम में पगे हुए। कैलास को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। तरह-तरह के साँप पाल रक्खे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करते रहते थे। थोड़े दिन हुए, उन्होंने विद्यालय में 'साँपों' पर एक मारके का व्याख्यान दिया था। साँपों को नचाकर दिखाया भी था। प्राणि-शास्त्र के बड़े-बड़े पण्डित भी यह व्याख्यान सुनकर दंग रह गये थे। यह विद्या उसने एक बूढ़े सपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी-बूटियाँ जमा करने का उसे मरज़ था। इतना पता-भर मिल जाय कि किसी व्यक्ति के पास कोई अच्छी जड़ी है, फिर उसे चैन न आता था। उसे लेकर ही छोड़ता था। यही व्यसन