दिये। ज़रा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल
पाँच आदमी हैं। उनकी बन्दूकों की नलियाँ धूप में साफ
चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं
रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें। लेकिन कन्धे पर
बन्दूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज़ न
दौड़ सकता था। फ़ासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते
में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि
कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फ़िसल जाय। उधर
सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से
उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा
हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार
उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरन्त उसे घेर लिया। धर्म-
दास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ो देखकर
उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बन्दूक
छूटकर गिर पड़ी। पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान
थे। एक पठान ने कहा--उड़ा दो सिर मरदूद का।
दगाबाज़ काफ़िर !
दूसरा--नहीं-नहीं, ठहरो अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ़ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सज़ा दी जाय ?