दो-चार सम्बन्धी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है ?'
'मुझे क्या राम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहाँ भी इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।'
'आज और कुशल से बीत जाय, तो फिर कोई भय नहीं।'
'मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायँ,तो भूनकर रख दूँ।'
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा और डोर लिये निकली और सामने कुँए की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर अरुणिमा मूर्तिमान हो गई थी।
दोनों युवक उसकी ओर बढ़े, लेकिन ख़ज़ाचँन्द तो दो-चार कदम चलकर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोर ले लिया और ख़जाँचन्द की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुँए की ओर चला, ख़जाँचन्द ने फिर बन्दूक सँभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह वह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेश-मात्र भी
सन्देह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। ख़जाँ-