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स्तीफ़ा


पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगी। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिन्ता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे भी ज़ोर से न रोते थे।

दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला, रूपवान् है। उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हक़ीक़त नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गति पर आकाश के देवता जय-घोष कर रहे हैं। दूसरा छोटे कद का, दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भाँति रो-रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है, इसका ख़जाँचन्द।

धर्मदास ने बन्दूक़ को ज़मीन पर टिकाकर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा--तुमने अपने लिए क्या सोचा ? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी ?

ख़जाँचन्द ने उदासीन भाव से उत्तर दिया--लाख-सवा लाख की तो नहीं, हाँ पचास-साठ हजार की जरूर थी। तीस हज़ार तो नकद ही थे।

'तो अब क्या करोगे ?'

'जो कुछ सिर पर आवेगा झेलूँगा। रावलपिंडी में

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