लगे हैं। कहीं उनके मन्दिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें ज़बरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिन्दू संख्या में कम हैं, असङ्गठित हैं, बिखरे हुए हैं, इस नई परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ छिपे हुए इस आँधी के शान्त हो जाने का अवसर देख रहें हैं। यह काफ़िला भी उन्हीं भागनेवालों में था। दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अन्त को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुँआ नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जेहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूकें भरकर कन्धे पर रक्खीं और चारों तरफ़ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछाकर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियाँ बालकों को गोद से उताकर माथे का पसीना
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स्तीफ़ा
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