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स्तीफ़ा


इधर-उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैंने डंडा चलाया। फिर खोपड़ी टूट जाय, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूँ वह करते चलो, पकड़ो कान !

साहब ने बनावटी हँसी हँस कर कहा-–वेल बाबूजी, आप बहुत दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा बात कहा है, तो हम आपसे माफी माँगता है !

फ़तहचंद--(डंडा तौल कर) नहीं, कान पकड़ो!

साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपककर उठे और चाहा कि फ़तहचंद के हाथ से लकड़ी छीन लें, लेकिन फतहचंद गाफ़िल न था। साहब मेज़ पर से उठने भी न पाये थे कि उसने डंडे का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाय। साहब तो नंगे सिर थे ही चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गई। एक मिनट तक सिर को पकड़े रहने के बाद बोले--हम तुमको बरखास्त कर देगा।

फ़तहचंद--इसकी मुझे परवाह नहीं। मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़ाये नहीं जाऊँगा। कान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसी बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पड़ा ही चाहता है !

यह कहकर फ़तहचंद ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह

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