जाँघों में दर्द होने लगा और आधा रास्ता खतम होते-होते पैरों ने उठने से इन्कार कर दिया। सारा शरीर पसीने में तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आँखों के सामने तितलियाँ उड़ने लगीं।
चपरासी ने ललकारा--जरा क़दम बढ़ाये चलो बाबू !
फ़तहचंद बड़ी मुश्किल से बोले--तुम जाओ मैं आता हूँ।
वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये और सिर को दोनों हाथों से थामकर दम मारने लगे। चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फ़तहचंद डरे कि यह शैतान जाकर न-जाने साहब से क्या कह दे, तो ग़जब ही हो जायगा। ज़मीन पर हाथ टेककर उठे और फिर चले। मगर कमज़ोरी से शरीर हाँफ रहा था। इस समय कोई बच्चा भी उन्हें ज़मीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब के बँगले पर पहुँचे। साहब बंगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ़ देखते थे और किसी को आते न देखकर मन-ही-मन में झल्लाते थे।
चपरासी को देखते ही आँखें निकाल कर बोले--इतनी देर कहाँ था ?