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स्तीफ़ा


नहीं--बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गये थे। आँखों में ज्योति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल पिचके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत न कलेजे में ताक़त। नौ बजे दफ्तर जाते और छः बजे शाम को लौटकर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें बिल्कुल खबर न थी। उनकी दुनिया, लोक-परलोक जो कुछ था दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिन्दगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुज़र गई थी।

जाड़ों के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फ़तहचंद साढ़े पाँच बजे दफ्तर से लौटे, तो चिराग़ जल गये थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते। ‌ चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पन्द्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते। तब कहीं जाकर उनके मुँह से आवाज़ निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने

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