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स्तीफ़ा


हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी,गरज उसमें तमाम मानवी अच्छाइयाँ मौजूद होती हैं। खँडहर के भी एक दिन भाग्य जगते हैं। दिवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस ग़रीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अँधेरी तक़दीर में रोशनी का जलवा कभी दिखाई नहीं देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुसकराहट की रोशनी नज़र नहीं आती। इसके लिए सदा सूखा-सावन है ! कभी हरा भादौं नहीं। लाला फ़तहचंद ऐसे ही एक बेज़बान जीव थे।

कहते हैं मनुष्य पर उसके नाम का भी कुछ असर पड़ता है। फ़तहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें 'हारचंद' कहा जाय, तो कदाचित् यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, ज़िन्दगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिये चारों ओर हार और निराशाएँ ही थीं। लड़का एक भी नहीं लड़कियाँ तीन, भाई एक भी नहीं भौजाइयाँ दो, गाँठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में दया और मुरव्वत, सच्चा मित्र एक भी नहीं--जिससे मित्रता हुई उसने धोखा दिया, इस पर तन्दुरुस्ती अच्छी

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