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कप्तान साहब

'रहना पड़ेगा। तुम लोगों को बहुत जल्द लाम पर जाना पड़ेगा।'

'लड़ाई छिड़ गई ? आह, तब मैं घर नहीं जाऊँगा। हम लोग कब तक यहाँ से जायेंगे ?'

'बहुत जल्द, दो ही चार दिन में।'

चार वर्ष बीत गये। कैप्टन जगतसिंह का-सा योद्धा उस रेजिमेंट में नहीं है। कठिन अवस्थाओं में उसका साहस और भी उत्तेजित हो जाता है। जिस मुहिम में सबकी हिम्मतें जवाब दे जाती हैं, उसे सर करना उसी का काम है। हल्ले और धावे में वह सदैव सबसे आगे रहता है, उसकी त्योरियों पर कभी मैल नहीं आता ; इसके साथ ही वह इतना विनम्र, इतना गम्भीर, इतना प्रसन्नचित्त है कि सारे अफसर और मातहत उसकी बड़ाई करते हैं। उसका

पुनर्जीवन-सा हो गया है। उस पर अफ़सरों को इतना विश्वास है कि अब वे प्रत्येक विषय में उससे परामर्श करते हैं। जिससे पूछिये, वह वीर जगतसिंह की विरुदावली सुना देगा--कैसे उसने जर्मनों के मेगजीन में आग लगाई, कैसे अपने कप्तान को मेशीनगनों की मार से निकाला, कैसे

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