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कप्तान साहब


में एक वृक्ष के नीचे कुछ सिपाहियों ने शालिग्राम की एक मूर्ति रख छोड़ी थी। कुछ श्रद्धालु सैनिक रोज उस प्रतिमा पर जल चढ़ाया करते थे। जगतसिंह उनकी हँसी उड़ाया करता। पर आज वह विक्षिप्तों की भाँति उस प्रतिमा के सम्मुख जाकर, बड़ी देर तक मस्तक झुकाये बैठा रहा। वह इसी ध्यानावस्था में बैठा था कि किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा। यह दफ़तर का चपरासी था और उसके नाम की चिट्ठी लेकर आया था। जगतसिंह ने पत्र हाथ में लिया तो उसकी सारी देह काँप उठी। ईश्वर की स्तुति करके उसने लिफ़ाफा खोला और पत्र पढ़ा। लिखा था,--'तुम्हारे दादा को ग़बन के अभियोग में ५ वर्ष की सजा हो गई है। तुम्हारी माता इस शोक में मरणासन्न है। छुट्टी मिले, तो घर चले आओ।'

जगतसिंह ने उसी वक्त कप्तान के पास जाकर कहा--'हजूर, मेरी माँ बीमार है, मुझे छुट्टी दे दीजिए।'

कप्तान ने कठोर आँखों से देखकर कहा--'अभी छुट्टी नहीं मिल सकती।'

'तो मेरा इस्तीफ़ा ले लीजिए।

'अभी इस्तीफ़ा भी नहीं लिया जा सकता।'

'मैं अब यहाँ एक क्षण नहीं रह सकता।'

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