नैराश्य में समुद्र-तट पर चला जाता और घण्टों अनन्त-जल-प्रवाह को देखा करता। कई दिनों से उसे घर पर एक पत्र भेजने की इच्छा हो रही थी ; किन्तु लज्जा और ग्लानि के कारण वह टालता जाता था। आखिर, एक दिन उससे न रहा गया। उसने पत्र लिखा और अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगी। पत्र, आदि से अन्त तक भक्ति से भरा हुआ था। अन्त में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन दिया था--'माताजी, मैंने बड़े-बड़े उत्पात किये हैं, आप लोग मुझसे तङ्ग आ गई थी, मैं उन सारी
भूलों के लिये सच्चे हृदय से लज्जित हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जीता रहा, तो कुछ-न-कुछ कर दिखाऊँगा। तब कदाचित् आपको मुझे अपना पुत्र कहने में संकोच न होगा। मुझे आशीर्वाद दीजिए कि, अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर सकूँ।'
यह पत्र लिखकर उसने डाक में छोड़ा और उसी दिन से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा ; किन्तु एक महीना गुजर गया और कोई जवाब न आया। अब उसका जी घबड़ाने लगा। जवाब क्यों नहीं आता--कहीं माताजी बीमार तो नहीं हैं ? शायद दादा ने क्रोधवश जवाब न लिखा होगा। कोई और विपत्ति तो नहीं आ पड़ी ? कैम्प