गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था, पर जगत की आँखों में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह कुन्दी होगी। इसमें सन्देह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दस-पाँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए। तब तक लोगों का क्रोध शान्त हो जायगा। लेकिन कहीं दूर गये बिना काम न चलेगा। बस्ती में वह कई दिन तक अज्ञातवास नहीं कर सकता। कोई-न-कोई ज़रूर ही उसका पता दे देगा और वह पकड़ लिया जायगा। दूर जाने के लिए कुछ-न-कुछ खर्च तो पास होना चाहिए। क्यों न वह लिफ़ाफे में से एक नोट निकाल ले। यह तो मालूम ही हो जायगा कि उसी ने लिफ़ाफ़ा फाड़ा है, फिर एक नोट निकाल लेने में क्या हानि है। दादा के पास रुपए तो हैं ही, झक मारकर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रुपए का एक नोट उड़ा लिया। मगर उसी वक्त उसके मन में एक नई कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। अगर वह ये सब रुपए लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दूकान खोल ले, तो बड़ा मज़ा हो। फिर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों किसी को चोरी करनी पड़े! कुछ दिनों में वह बहुत-सा रुपया जमा करके घर आयेगा, तो लोग कितने चकित हो जायँगे।
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कप्तान साहब
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