दुरवस्था में जगतसिंह की हथ-लपकियाँ बहुत अखरतीं।
उन्होंने कितनी ही बार उसे बड़ी निर्दयता से पीटा। जगत-
सिंह भीमकाय होने पर भी चुपके से मार खा लिया करता
था। अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हिल
भी न सकते; पर जगतसिंह इतना सीनाज़ोर न था। हाँ,
मार-पीट, घुड़की-धमकी किसी का भी उस पर असर न
होता था।
जगतसिंह ज्यों ही घर में क़दम रखता, चारों ओर से काँव-काँव मच जाती -- माँ दुर-दुर करके दौड़ती, बहनें गालियाँ देने लगतीं, मानो घर में कोई साँड़ घुस आया हो। बेचारा उलटे पाँव भागता। कभी-कभी दो-दो तीन-तीन दिन भूखा रह जाता। घरवाले उसकी सूरत से जलते थे। इन तिरस्कारों ने उसे निर्लज्ज बना दिया था। कष्टों के ज्ञान से वह हत-सा होगया था। जहाँ नींद आ जाती वहाँ पड़ रहता, जो कुछ मिल जाता वही खा लेता।
ज्यों-ज्यों घरवालों को उसकी चौर-कला के गुप्त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहाँ तक कि एक बार पूरे महीने-भर तक उसकी दाल न गली। चरसवाले के कई रुपए ऊपर चढ़ गये। गाँजेवाले ने धुआँधार तक़ाजे करने शुरू किये। हलवाई