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फ़ातिहा


था, जो अफ्रीदियों के एक गिरोह का सरदार था। मैंने सरदार हिम्मतसिंह के सम्बन्ध में भी तूरया से बातें की, तो मालूम हुआ कि तूरया सरदार साहब को प्यार करने लगी थी। वह हमारे बाप से लड़-भिड़कर सरदार साहब से निकाह करने आई थी ; लेकिन वहाँ इनकी स्त्री को पाकर वह ईर्षा और क्रोध से पागल हो गई, और उसने उनकी स्त्री की हत्या कर डाली। काबुली औरत के भेष में जाकर वह कुछ मज़ाक करना चाहती थी; लेकिन घटना-चक्र उसे दूसरे ही ओर ले गया।

मैंने सरदार साहब की दशा का वर्णन किया। सुनकर वह कुछ सोचती रही और फिर कहा--नहीं, वह आदमी झूठा और दग़ाबाज़ है। मैं उससे निकाह नहीं करूँगी ; लेकिन तेरी खातिर अब सब भूल जाऊँगी। कल उनके बच्चों को ले आना, मैं प्यार करूँगी।

प्रातःकाल तूरया को देखकर मेरा नौकर आश्चर्य करने लगा। मैंने उससे कहा--यह मेरी सगी बहन है।

नौकर को मेरी बात पर विश्वास न हुआ। तब मैंने विस्तारपूर्वक सब हाल कहा और उसे उसी समय अपने बाप की लाश की खबर लेने के लिये भेजा। नौकर ने आकर कहा--लाश अभी तक थाने पर रक्खी हुई है।

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