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फ़ातिहा

महीनों और सालों बीत गए। मैंने तूरया को और न उसके बाप को ही देखा। तूरया ने आने के लिये कहा भी; लेकिन वह आई नहीं। वहाँ से आकर मैंने अपनी स्त्री को उसके मायके भेज दिया था, क्योंकि ख्याल था कि शायद तूरया आवे, तो फिर मैं झूठा बनूँगा; लेकिन जब तीन साल बीत गए और तूरया न आई, तो मैं निश्चिन्त हो गया और स्त्री को मायके से बुला लिया। हम लोग सुख-पूर्वक दिन काट रहे थे कि अचानक फिर दुर्दशा की घड़ी आई।

एक दिन सन्ध्या के समय इसी बरामदे में बैठा हुआ अपनी स्त्री से बातें कर रहा था, कि किसी ने बाहर का दरवाजा खटखटाया। नौकर ने दरवाज़ा खोल दिया और बेधड़क ज़ीना चढ़ती हुई एक काबुली औरत ऊपर चली आई। उसने बरामदे में आकर विशुद्ध पश्तो भाषा में पूछा--सरदार साहब कहाँ हैं ?

मैंने कमरे के भीतर आकर पूछा--तुम कौन हो, क्या चाहती हो ?

उस स्त्री ने कुछ मूँगे निकालते हुए कहा--यह मूँगे मैं बेचने के लिये आई हूँ, खरीदियेगा ?

यह कहकर उसने बड़े-बड़े मूँगे निकालकर मेज पर रख दिये।

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