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फ़ातिहा


आये थे ; लेकिन मुझे स्वप्न में भी विश्वास न हुआ था कि वे तुम्हारे लिखे हुए हैं। मैं तो उन्हें जाली समझता था। ईश्वर को धन्यवाद है कि तुम जीते बचकर आ गए।

मैंने कर्नल साहब को धन्यवाद दिया और मन-ही-मन कहा--काले आदमी का लिखा हुआ जाली था, और कहीं अगर गोरा आदमी लिखता, तो दो की कौन कहे, चार हज़ार रुपया पहुँच जाता। कितने ही गाँव जला दिये जाते और न जाने क्या-क्या न होता।

मैं चुपचाप अपने घर आया। बाल-बच्चों को पाकर आत्मा सन्तुष्ट हुई। उसी दिन एक विश्वासी अनुचर के द्वारा दो हज़ार रुपये तूरया के पास भेज दिये।

सरदार ने एक ठंढी साँस लेकर कहा--असदखाँ अभी मेरी कहानी समाप्त नहीं हुई। अभी तो दुःखान्त भाग अवशेष ही है। यहाँ आकर मैं धीरे-धीरे अपनी सब मुसीबतें भूल गया; लेकिन तूरया को न भूल सका। तूरया की कृपा से ही मैं अपनी स्त्री और बच्चों से मिल पाया था, यही नहीं, जीवन भी पाया था, फिर भला मैं उसे कैसे भूल जाता।

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