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फ़ातिहा


कर दिये गये थे और जल्दी उनकी तरफ से कोई आशंका नहीं थी। हम लोग निश्चिन्ति होकर गप्प और हँसी-खेल में दिन गुजारते। बैठे-बैठे दिल घबरा गया था, सिर्फ मन बहलाने के लिये सरदार साहब के घर की ओर चला; किन्तु रास्ते में एक दुर्घटना हो गई। एक बूढ़ा अफ्रीदी, जो अब भी एक हिन्दुस्थानी जवान का सिर मरोड़ देने के लिये काफ़ी था, एक फौजी जवान से भिड़ा हुआ था। मेरे देखते-देखते उसने अपनी कमर से एक तेज़ छुरा निकाला और उसकी छाती में घुसेड़ दिया। उस जवान के पास एक कारतूसी बन्दूक थी, बस उसी के लिये यह सब लड़ाई थी। पलक मारते-मारते फ़ौजी जवान का काम-तमाम हो गया और बूढ़ा बन्दूक लेकर भागा। मैं उसके पीछे दौड़ा; लेकिन दौड़ने में वह इतना तेज़ था कि बात-की-बात में आँखों से ओझल हो गया। मैं भी बेतहाश उसका पीछा कर रहा था। आख़िर सरहद पर पहुँचते-पहुँचते मैं उससे बीस हाथ की दूरी पर रह गया। उसने पीछे फिरकर देखा, मैं अकेला उसका पीछा कर रहा था। उसने बन्दूक का निशाना मेरी ओर साधा। मैं फ़ौरन ही जमीन पर लेट गया और बन्दूक की गोली मेरे सामने के पत्थर पर लगी। उसने समझा कि मैं गोली का शिकार हो गया। वह धीरे-धीरे सतर्क पदों से

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