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फ़ातिहा

कभी-कभी मेरे मन में यह इच्छा बलवती होती कि स्वच्छन्द होकर पहाड़ों की सैर करूँ, लेकिन जीविका का प्रश्न मेरी इच्छा को दबा देता। उस सूखे देश में खाने का कुछ भी ठिकाना नहीं था। वहीं के लोग एक रोटी के लिये मनुष्य की हत्या कर डालते, एक कपड़े के लिये मुरदे की लाश चीर-फाड़कर फेंक देते, और एक बन्दूक के लिये सरकारी फ़ौज पर छापा मारते हैं। इसके अतिरिक्त उन जंगली जातियों का एक-एक मनुष्य मुझे जानता था और मेरे खून का प्यासा था। यदि मैं उन्हें मिल जाता, तो जरूर मेरा नाम-निशान दुनिया से मिट जाता। न-जाने कितने अफ्रीदियों और ग़िलज़इयों को मैंने मारा था, कितनों को पकड़-पकड़कर सरकारी जेलखाने में भर दिया था, और न-मालूम उनके कितने गाँवों को जलाकर खाक कर दिया था। मैं भी बहुत सतर्क रहता, और जहाँ तक होता, एक स्थान पर एक हफ्ते से अधिक कभी न रहता।

एक दिन मैं मेजर सरदार हिम्मतसिंह के घर की ओर जा रहा था। उस समय दिन के दो बजे थे। आजकल छुट्टी-सी थी ; क्योंकि अभी हाल ही में कई गाँव भस्मीभूत

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