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परीक्षा गुरु
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वक्तृता की जिसमें अपने मरने के लिये अपने सिवाय किसी को दोष न दिया वह बोली कि “इंग्लैंड की गद्दी पर बैठने के वास्ते उद्योग करने का दोष मुझ पर कोई नहीं लगावेगा परंतु इतना दोष अवश्य लगावेगा कि "वह औरों के कहनें से गद्दी पर क्यों बैठी? उसने जो भूल की वह लोभ के कारण नहीं केवल बड़ों के आज्ञवर्ती होकर की थी, सो यह करना मेरा फर्ज था परन्तु किसी तरह करो जिसके साथ मैंने अनुचित व्यवहार किया उसके साथ मैं प्रसन्नता से अपने प्राण देने को तैयार हूँ” यह कहकर उसने बड़े धैर्य से अपनी जान दी.

"दुखिया अपने मन को धैर्य देने के लिये चाहे जैसे समझा करें परन्तु साधारण रीति तो यह है कि उचित उपाय से हो अथवा अनुचित उपाय से हो जो अपना काम निकालता है वही सुखी समझा जाता है. आप विचार कर देखेंगे तो मालूम हो जायगा कि आज भूमंडल में जितने अमीर और रईस दिखाई देते हैं उनके बड़ों में से बहुतों ने अनुचित कर्म करके यह वैभव पाया होगा" मुन्शी चुन्नीलाल ने कहा.

कभी अनुचित कर्म करने से सच्चा सुख नहीं मिलता प्रथम तो मनु महाराज और लोमश ऋषि एक स्वर से कहते हैं कि कर अधर्म पहले बढ़त सुख पावत बहुत भांत॥ शत्रु न जय कर आप पुन मूलसहित बिनसात॥*” फिर जिस तरह सत्कर्म का फल


अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति॥
तत: सपत्नाम् जयतिस मुलस्तूविनस्यति
वर्धत्य धर्मेंण नरस्ततो भद्राणि पश्यति॥
तत: मपत्नान् जयति समूलस्तू विनश्यति॥