दूरहिसों करबढ़ाय, नयननते जलबहाय,
आदरसों ढिंगबूलाय, अर्धासन देतसो॥
हितसोहियों मैं लगाय, रुचिसमबाणी बनाय,
कहत सुनत अति सुभाय, आनंद भरि लेत जो॥
ऊपरसों मधु समान, भीतर हलाहल जान,
छलमैं पंडितमहान्, कपटको निकेतवो॥
ऐसो नाटक विचित्र, देख्यो ना कबहु मित्र,
दुष्टनकों यह चरित्र, सिखवे को हेतको?.
लाला मदनमोहन को हरदयाल से मिलने की लालसा में दिन पूरा करना कठिन हो गया. वह घड़ी-घड़ी घंटे की तरफ़ देखते थे और उखताते थे. जब ठीक चार बजे अपने मकान से सवार होकर मिस्तरीख़ाने में पहुंचे यहां तीन बग्गियें लाला मदनमोहन की फ़र्मायिश से नई चाल की बन रही थीं. उनके लिये बहुत सा सामान विलायत से मंगाया गया था और मुंबई के दो कारीगरों की राह से वह बनाई जाती थीं. लाला मदनमोहन ने कह रखा था कि "चीज़ अच्छी बनें खर्च की कुछ नहीं अटकी जो होगा
दूरा दुछितपाणि रार्द्रनयन: प्रात्सारितार्गांसनो
गाढ़लिंग्गनतत्पर: प्रिवक्कथाद्रत्रेषु दत्तादर:॥
अन्तर्भूतविषी वहिर्मघुमयश्चातीव मायापटु.
कोनामायमपूर्वनाटकविधिर्य: शिक्षितोदुर्जन:॥१॥