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प्रेत भय.
 


कोई छलावा छलता है” यह कहकर लाला मदनमोहन नें फिर आंखैं बन्द करलीं.

“मेरे प्राण पतिके लिये यहां क्या? मुझको नर्कमैं भी जाना पडे तो क्या चिंता है? सच्ची प्रीतिका मार्ग कोई रोक सक्ता है? स्त्रीको पति संग कदै, जंगल,या समुद्रादि मैं जानें सै कुछ भी भय नहीं है परन्तु पतिके बिना सब संसार सूना है यदि सुख दुःख के समय उस्की विवाहिता की उस्के काम न आवैगी तो और कोन आवैगा?" उस स्त्रीने कहा.

लाला मदनमोहन सै थोडी देर कुछ नहीं बोला गया न जानें उन्के चित्तमैं किसी तरहका भय उत्पन्न हुआ, अथवा किसी बात के सोच विचार मैं अपना आपा भूलगए, अथवा लज्जा सै कुछ न बोलसके, और लज्जा थी तो अपनी मूर्खता से इस दशा में पहुॉचने की थी, अथवा अपनी स्त्रीके साथ ऐसे अनुचित व्यावहार करनें की थी? परन्तु लाला मदनमोहन के नेत्रों से आंसू निस्संदेह टपकते थे वह उस स्त्रीकी गोद मैं सिर रख; फूट, फूटकर रो रह थे.

“मेरे प्राण प्रीतम! आप उदास न हों ज़रा हिम्मत रक्खो जो आप की यह दशा होगी तो हम लोगोंका पता कहां लगेगा? दुःख सुख बायु के समान सदा अदलते बदलते रहते हैं इसलिये आप अधैर्य न हों आप के चित्त की स्थिरता पर हम सब का आधार है” उस स्त्री ने कहा.

“मुझ सैं इस्समय तेरे सामनें आंख उठाकर नहीं देखा जाता, एक अक्षर नहीं बोला जाता, मैं अपनी करनी सै अत्यन्त लज्जित हूं जिस्पर तू अपनी लायकी सै मेरे घायल हृदय को क्यों