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परीक्षागुरु.
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"मेरी इज्जत गई, मेरी दौलत गई, मेरा आराम गया, मेरा नाम गया, मैं लज्जा सै किसी को मुख नहीं दिखा सक्ता, किसी सै बात नहीं कर सक्ता, फिर मुझको संसार मैं जीनें सै क्या लाभ है? ईश्वर मोत दे तो इस दुःख सै पीछा छुटे परन्तु अभागे मनुष्य को मोत क्या मांगेसै मिल सक्ती है? हाय! जब मुझको तीस वर्ष की अवस्था मैं यह संसार ऐसा भयङ्कर लगता है तौ साठ वर्ष की अवस्था मैं न जाने मेरी क्या दशा होगी?

"हा! मोत का समय किसी तरह नहीं मालूम हो सक्ता सूर्य के उदय अस्त का समय सब जान्ते हैं, चन्द्रमा के घटनें बढने का समय सब जान्ते हैं, ऋतुओं के बदलनें का, फूलों के खिलनें का, फलों के पकनें का समय सब जान्ते हैं परन्तु मोत का समय किसी को नहीं मालूम होता. मोत हर वक्त मनुष्य के सिर पर सवार रहती है उस्के अधिकार करनें का कोई समय नियत नहीं है कोई जन्म लेते ही चल बसता है कोई हर्ष बिनोद मैं, कोई पढनें लिखनें मैं, कोई खानें कमानें मैं, कोई जवानी की उमंग मैं कोई मित्रों के रस रंग मैं अपनी सब आशाओं को साथ लेकर अचानक चल देता है परन्तु फिर भी किसी को मोत की याद नहीं रहती कोई परलोक का भय करके अधर्म नहीं छोडता? क्या देखत भूली का तमाशा ईश्वर में बना दिया है!"

लाला मदनमोहन के चित्त मैं मोत का विचार आते ही भूत प्रेतादि का भय उत्पन्न हुआ वह अन्धेरी रात, छोटी सी कोठी, एकान्त जगह, चित्त की ब्याकुलता मैं यह विचार आते ही सब सुधरे हुए बिचार हवा मैं उड गए छाती धडकनें ली, रोमांच